“ज़िंदगी: रूह दा रेडियो”

ये तमाम कायनात एक रेडियो ब्रॉडकास्टर की तरह है
जो हर वक़्त कायनात में मोहब्बत फैलाने की हसरत में
इश्क़ की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स रेडिएट करती रहती है

और ये ज़िंदगी उस महत्वाकांक्षी श्रोता लिस्टनर की तरह है
जो कि ज़िंदगीभर सही स्टेशन ट्यून करने की चाहत में
अपनी कोशिशों के ट्यूनर को चारों ओर घुमाता रहता है

लेकिन मनपसंद स्टेशन के आस-पास 
नाॅस्टेल्जिक नॉइज बहुत होता है
जिसे पूरी तरह से रिमूव करने में फ़ितरत का फिल्टर नाकाम रहता है

कायनात के इस चैनल की सबसे ख़ास बात यह है
कि यहाँ केवल प्यार की ढ़ाई हर्टज फ्रिक्वेंसी ही नहीं 
बल्कि श्रोताओं के नसीब की ब्रॉडकास्टिंग भी होती हैं

और तो और
प्रोग्राम के दौरान अक्सर एड भी वहीं आते हैं
जो सुनने वालों के मन के मन को बहलाते हैं
गीत सुनाते-सुनाते, अपनी दुनिया में ले जाते हैं

ये सब तो ठीक है, 
मगर अब तक ये पता नहीं चल पाया
के रूह के रिकॉर्डिंग रूम में 
आखिर वो आरजे कौन है?
जो हर वक़्त, वक़्त के अकाॅर्डिंग
नये-पुराने ट्रैक प्ले करता रहता हैं
और बीच-बीच में दिल की बातें
पुरानी वो यादें ताज़ा कर देता हैं 

तो चलिये दोस्तों
मैं जब तक उस आरजे का पता लगाता हूँ
आप तब तक इक एहसास की आवाज़ में
यह नग़्मा सुनिये

बोल है राॅकशायर इरफ़ान के
संगीत है मन के मीत का
और फिल्म का नाम है
ज़िंदगी: रूह दा रेडियो

“Henna (मेंहदी/हिना)”

खुद को मिटाकर हमेशा दूसरों को खुशियाँ देती है
हिना तो हर महफ़िल को दिल के रंग में रंग देती है।

हिना की क़िस्मत है पिसना
हिना की फ़ितरत है रंगना
हिना की हसरत है खिलना
हिना की क़ुदरत है रचना।

हिना की कहानी भी कितनी बेमानी है 
ये जितना पिसती है उतना निखरती है।

दुल्हन के हाथों में लगने वाली मेंहदी भी यही है
हर औरत की ज़ेबोज़ीनत संवारती भी यही है।

बिना इसके ना कोई शगुन है
ना कोई फागुन
बिना इसके ना कोई मिलन है
ना कोई साजन।

मेंहदी लगे हाथों को खुद पर नाज़ होता है 
मेंहदी रचे हाथों में रुमानी एहसास होता है।

अपने अरमान दबाकर दिल में अरमान जगाती है
हिना तो पिसते-पिसते खुशी से लाल हो जाती है।

हिना का नसीब है पिसना
हिना को हबीब है जचना
हिना की तक़्दीर है रंगना
हिना को अज़ीज़ है रचना।

हिना की कहानी भी कितनी बेमानी है 
ये जितना पिसती है उतना निखरती है।

हिना की तासीर बहुत ही ठंडी होती है
जलन और तपिश को ये दूर कर देती है।

सब्ज़ पत्तियों की तरह, हिना के जज़्बात भी सब्ज़ होते हैं
हिना पर कोई कैसे लिखे, लिखने को लफ़्ज़ नहीं होते हैं।।

#RockShayar

हिना – मेंहदी
ज़ेबोज़ीनत – Beauty 
रुमानी – Romantic
हबीब/अज़ीज़ – Dear 
तासीर – Nature
सब्ज़ – Green
जज़्बात – Emotions
लफ़्ज़ – Word

“चट्टानों की तरह है वुज़ूद मेरा, लहरों की तरह है वुज़ूद तेरा”

चट्टानों की तरह है वुज़ूद मेरा
लहरों की तरह है वुज़ूद तेरा।

खुश्क़ सहराओं से कोसों दूर
समंदर किनारे अपना बसेरा।

चट्टानों पर खड़ी होकर खुद को निहारती हो
पानी को आईना बनाकर जुल्फ़ें संवारती हो।

चट्टानों की फ़ितरत हैं पथरीला बन जाना
लहरों की तो आदत हैं सब बहा ले जाना।

चट्टानों पर खड़ी होकर दरिया-ए-दिल देखती हो
पानी को स्याही समझकर हाल-ए-दिल लिखती हो।

चट्टानों की किस्मत हैं लहरों के मुस्लसल थपेड़ें सहना
लहरों की तो हसरत हैं चट्टानों के माथे पर बोसा लेना।

चट्टानों के पास आती हो और फिर दूर निकल जाती हो
पानी को हथेलियों में भरकर खुद को महसूस करती हो।

चट्टानों की चाहत हैं लहरों को ठहरना सिखाना
लहरों की तो आदत हैं चट्टानों से रोज टकराना।

चट्टानों पर खड़ी होकर जाने क्या सोचती हो
पानी को ख़त समझकर गीले पन्ने पलटती हो।

चट्टानों की फ़ितरत हैं लहरों को साहिल पर ही रोक देना
लहरों की तो आदत हैं चट्टानों को छूकर फिर लौट जाना।

चट्टानों की मोहब्बत हैं लहरें
लहरों की तो चाहत हैं चट्टानें।

एक दूसरे के बिना, किसी समंदर को न जाने ये दोनों
एक दूसरे से मिलकर, लगे हैं समंदर को पाने ये दोनों।

चट्टानों की तरह है वज़ूद मेरा
लहरों की तरह है वज़ूद तेरा।

इस बार जब मुलाक़ात होगी
दिल के साहिल पर होगा सवेरा।।

-राॅकशायर⁠⁠⁠⁠

“हिन्दी केवल एक भाषा नहीं”

हिन्दी केवल एक भाषा नहीं
सृजन की यह आभा है
हिन्दी केवल एक गाना नहीं
जीवन की जयगाथा है।

हिन्दी केवल एक वर्ग नहीं
विविधताओं का भंडार है
हिन्दी केवल एक तर्क नहीं
समीक्षाओं का संसार है।

हिन्दी बहुत सरल है
प्रकृति जिसकी तरल है
संवेदनाओं की भूमि में
यह परिपक्व फसल है।

हिन्दी केवल मातृभाषा नहीं
संवैधानिक एक पर्व है
हिन्दी केवल राजभाषा नहीं
गणतांत्रिक यह गर्व है।

हिन्दी केवल एक बोली नहीं
चिंतन की यह उपमा है
हिन्दी केवल एक मोती नहीं
मंथन की यह महिमा है।

अभिव्यक्ति का अंश है
यह न कोई अपभ्रंश है
आदिकाल से भी आदि
सभ्यताओं का वंश है।

हिन्दी केवल एक भाषा नहीं
जीवन की यह ज्वाला है
हिन्दी केवल परिभाषा नहीं
सृजन का यह प्याला है।

हिन्दी केवल एक संकाय नहीं
ज्ञान की यह दृष्टि है
हिन्दी केवल एक पर्याय नहीं
सम्मान की यह सृष्टि है।

इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं
के साहित्यिक पतन रोकती यही
पठन-पाठन अतिसुंदर लेखन
लोक-लुभावनी लोकोक्ति यही।

हिन्दी केवल एक भाषा नहीं
जीवन की जिज्ञासा है
हिन्दी केवल एक आशा नहीं
मन की महत्वाकांक्षा है।

हिन्दी केवल एक मंत्र नहीं
आध्यात्मिक अनुनाद है
हिन्दी केवल एक छंद नहीं
यह आत्मिक अनुवाद है।

अनुदार नहीं बहुत उदार है यह
उद्वेलित मन का उपहार है यह
वैचारिक व्याकरण से सुसज्जित
हृदय का उद्दीप्त उद्गार है यह।

हिन्दी केवल एक भाषा नहीं
जीवन की जिजीविषा है
हिन्दी केवल अभिलाषा नहीं
सृजन की सही दिशा है।

हिन्दी केवल एक मुक्तक नहीं
मर्म की मधुशाला है
हिन्दी केवल एक पुस्तक नहीं
कर्म की पाठशाला है।

राष्ट्रीय गौरव है यह
शासकीय सौरव है यह
क्लिष्ट और कर्कश नहीं
मधुर कलरव है यह।

हिन्दी केवल एक पथ नहीं
चिंतन की उपमा है
हिन्दी केवल एक रथ नहीं
मंथन की महिमा है।

हिन्दी केवल चलचित्र नहीं
अभिव्यक्ति का संगीत है
हिन्दी केवल एक क्षेत्र नहीं
अनुभूति का यह गीत है।

हिन्दी केवल एक प्रदेश नहीं
बल्कि संपूर्ण भारत है
हिन्दी केवल राजआदेश नहीं
बौद्धिक अभिभावक है।

हिन्दी केवल शब्दकोश नहीं
विधाओं का विस्तार है
हिन्दी केवल ज्ञानकोश नहीं
मेधाओं का मल्हार है।

हिन्दी केवल एक भाषा नहीं
कवि की कविता है
हिन्दी केवल एक आशा नहीं
रवि की सविता है।

हिन्दी केवल एक अक्षर नहीं
यह विशिष्ट योग्य वर्ण है
हिन्दी केवल हस्ताक्षर नहीं
अपितु हृदय का दर्पण है।

हिन्दी केवल मातृभाषा नहीं
सृजन की यह आभा है
हिन्दी केवल राष्ट्रभाषा नहीं
जीवन की महागाथा है।।

-राॅकशायर इरफ़ान अली ख़ान⁠⁠⁠⁠

“एलियन हूँ मैं”

इंसान नहीं एक एलियन हूँ मैं
गुमनाम ग्रह प्लूटो से आया हूँ
लोग मुझसे डरते हैं, और मैं लोगों से ।

ज़िन्दगी जीना चाहता हूँ
मगर ज़िन्दगी जीने का सलीका नहीं आता है
दोस्त बनाना चाहता हूँ
पर दोस्ती निभाने का तरीका नहीं आता है ।

कोई मेरी बचकानी हरकतों पर हँसता है
तो कोई मेरी मनमानी हसरतों पर
कोई निहायत बेवकूफ समझता है
तो कोई हद से ज्यादा खुदगर्ज ।
पता नहीं असल में कौन हूँ मैं
कोई हूँ भी सही, या नहीं हूँ मैं ।

कल जब एक जुपिटर से आए
एलियन से मुलाकात हुई
तब कहीं जाकर सिस्टम को सुकून नसीब हुआ
कि चलो कोई तो मिला अपने जैसा चेहरा यहाँ ।

इंसान नहीं एक एलियन हूँ मैं
गुमनाम ग्रह प्लूटो से आया हूँ
लोग मुझसे डरते हैं, और मैं लोगों से ।।

-RockShayar

“एक एलियन हूँ मैं”

इंसान नहीं एक एलियन हूँ मैं
गुमनाम ग्रह प्लूटो से आया हूँ
लोग मुझसे डरते हैं, और मैं लोगों से ।

ज़िन्दगी जीना चाहता हूँ
मगर ज़िन्दगी जीने का सलीका नहीं आता है
दोस्त बनाना चाहता हूँ
पर दोस्ती निभाने का तरीका नहीं आता है ।

कोई मेरी बचकानी हरकतों पर हँसता है
तो कोई मेरी मनमानी हसरतों पर
कोई निहायत बेवकूफ समझता है
तो कोई हद से ज्यादा खुदगर्ज ।
पता नहीं असल में कौन हूँ मैं
कोई हूँ भी सही, या नहीं हूँ मैं ।

कल जब एक जुपिटर से आए
एलियन से मुलाकात हुई
तब कहीं जाकर सिस्टम को सुकून नसीब हुआ
कि चलो कोई तो मिला अपने जैसा चेहरा यहाँ ।

इंसान नहीं एक एलियन हूँ मैं
गुमनाम ग्रह प्लूटो से आया हूँ
लोग मुझसे डरते हैं, और मैं लोगों से ।।
-RockShayar

“आख़िर लगा ही दी न तुमने तसव्वुर पर बंदिश”

आख़िर लगा ही दी न तुमने
तसव्वुर पर बंदिश
कहा था मैंने इक रोज
के है बस इतनी गुज़ारिश
पर तुमने सुना नहीं शायद
और अब आलम यह है कि
ख़याल में भी ख़याल हो चुकी हो ।

जब सब खत्म हो चुका है
तो फिर ये बैचैनी क्यों
क्यों तुम्हारी आवाज़ मेरे ज़ेहन में गूँजती रहती है
क्यों हर शब ये आँखें
तुम्हारे इंतज़ार में खुली रहती है
मैं तो सो जाता हूँ, पर ये सोती नहीं है
गर हमारा मिलना लिखा ही नहीं है दोबारा
तो फिर दिल में ये आस क्यूँ है ज़िन्दा अब तक
कभी भूले से ही सही
मेरे तसव्वुर में फिर से थोड़ी जान फूँक दो
पल पल मर रहा है यह
और इसके साथ मैं भी
इतनी खुदगर्ज़ी भी अच्छी नहीं
आख़िर इतना हक़ तो बनता है
उस मोहब्बत का
जो की थी मैंने कभी तुमसे
मेरी डायरी का हर पन्ना गवाह है
कि ये क़लम कभी झूठ नहीं लिखती है ।।

“तुम्हारी आवाज़”

कल तुम्हारी आवाज़ की एक रिकॉर्डिंग मिली मुझे
अपने लैपटॉप के एक पुराने हिडन फोल्डर से
डिलीट कर चुका था जिसे मैं
दोबारा डाटा रिकवरी सॉफ्टवेयर की मदद से पाया उसे ।

सुनकर दिल को उतना ही सुकून मिला,
जितना उस रोज मिला था
जब तुम मेरे सामने बैठकर वो गाना गा रही थी
और मैं अपने मोबाइल के साथ साथ अपनी आँखों के रिकॉर्डर में भी उसे सेव कर रहा था ।

अल्फ़ाज़ से ज्यादा मैं वो जज़्बात देख रहा था
जो तुम्हारे चेहरे पर उतर आए थे ।

बेहद प्यारी सी वो आवाज़ तुम्हारी
सुनकर जिसे ऐसा लग रहा था
मानो मैं डल झील के किसी
खूबसूरत शिकारे में बैठा हुआ हूँ
और वादी-ए-कश्मीर गुनगुना रही है –

“हाँ अश्क़ सूरो
रश्क़ करथास दीवाना तई
अनोन असी, चुक्स लागा दीवाना तई
हाँ अश्क़ सूरो…
शम्मा तपोपो द्राई लागे यारा न तई
दस्वई तिज़ित्फी, अद्दा सकतू यक्सा न तई
हाँ अश्क़ सूरो
रश्क़ करथास दीवाना तई
अनोन असी चुक्स लागा दीवाना तई
हाँ अश्क़ सूरो “

इसी धुन पर मैंने एक गाना भी बनाया है
एक दिन जब तुम्हारी बहुत याद आ रही थी तब
आख़िर उस रोज हम बात जो कर रहे थे ।

और तुमने इतना भी कहा था कि
जब आप बहुत बड़े शायर बन जाओगे
तब आप नग़्मे लिखना और मैं उन्हें
अपनी आवाज़ से सजाऊँगी ।
हमारा म्यूजिक एलबम आएगा
कितना अच्छा लगेगा ।

उस वक़्त जो खुशी मैंने तुम्हारे चेहरे पर देखी थी
वहीं खुशी आज फिर से अपने चेहरे पर देख पाया हूँ, बाद मुद्दत के ।

कल तुम्हारी आवाज़ की एक रिकॉर्डिंग सुनी
रिकवर किया जिसे मैंने
एक पुराने डिलीटेड फोल्डर से
रिकवरी सॉफ्टवेयर की मदद से ।

काश बीते लम्हों को रिकवर करने का भी कोई सॉफ्टवेयर होता !
तब हम फिर से एक बार आमने सामने बैठते
और अपने आने वाले म्यूजिक एलबम के बारे में गुफ्तगू करते ।।

@RockShayar

“तू क्या गयी, अपने साथ मुझे भी ले गयी”

तू क्या गयी, अपने साथ मुझे भी ले गयी
अब ना तू नज़र आती है, ना मैं ।

दोनों वक़्त की शाख से टूटे हुए पत्ते लगते हैं
ना उड़ते हैं, ना कहीं तफ़रीह करते हैं
जाने क्यों ठहर गए हैं ।
पता नहीं किसका इंतज़ार है
इंतज़ार है भी या नहीं
ये भी आज तक पता नहीं चल पाया है ।

कुछ तो ज़रूर हुआ था उस रोज
जब हम दोनों की नज़रे मिली थी
नज़रों से तो कुछ भी नहीं छुपता
फिर भी ये बात अब तक छुपी हुई है
कि आख़िर क्यों मिले थे हम उस रोज
जब बारिश हो रही थी ।

और वैसे भी
दुनिया में हर रोज लाखों लोग
इक दूसरे से मिलते हैं
फिर हमारा मिलना ही
इतना ख़ास क्यों लगता है मुझे ।

आख़िरी मुलाकात के वक़्त सोच रहा था
कि तुम्हें रोक लू, जाने न दू
मगर फिर ख्याल आया
कि मेरा हक़ ही क्या है तुम पर
बेवजह क्यों इतना जज़्बाती हो गया था मैं
आज तक इस सवाल का जवाब नहीं मिल पाया

शायद तेरा बिछुड़ना ही तेरा मिलना था !

तू क्या गयी, अपने साथ मुझे भी ले गयी
अब ना तू नज़र आती है, ना मैं ।।

@rockshayar

“मिट्टी की कहानी”

पता नहीं ये मिट्टी किस मिट्टी की बनी है ।
इसे तो शायद अपना वज़ूद भी नहीं पता है
या फिर इसने जान बूझकर खुद को ऐसा बना लिया, के हर वज़ूद इसी से बनता चला गया ।

कहते है हम सब इंसान भी मिट्टी से बने हुए हैं ।
मगर ये मिट्टी हम इंसानों से कई दर्जा बेहतर है।
न इसे छल कपट आता है, न कोई चेहरे पर चेहरा लगाना । ये तो इतनी पाक और साफ है कि नमाज़ी को जब वुज़ू के लिए पानी नसीब न हो तो मिट्टी से ही पाकी हासिल करने (तयम्मुम करने) का हुक्म है । मिट्टी की सीरत आईने की तरह है । जो इसमें बोओगे तुम, वहीं काटोगे तुम । कोई मिलावट नहीं, न कोई फ़रेब की शिकायत ।
मिट्टी के इतने किरदार है कि खुद मिट्टी को भी नहीं पता ।
पानी से मिलकर शायद इसे इश्क़ हो जाता है अपने आप से । तभी तो वो खुशी छुपाए नहीं छुपती । कहीं पेड़ पौधों के रूप में, तो कहीं फसल और सब्जियों के रूप में लहलहाती है ।
धूप की चादर भी ज़रूरी है, सर्द हवाओं का आदर भी ज़रूरी है । बारिश की बूँदें इसे अच्छी लगती हैं, सूरज की रौशनी इसे सच्ची लगती है ।
हालातों के सफ़र में मिट्टी भी बदलती रहती है ।
कहीं रेत तो कहीं दलदल, कहीं खेत तो कहीं बंजर । अनगिनत रूप हैं इसके । मिट्टी से बने हुए घड़े हो चाहे इंसान, दोनों बनते बिगड़ते टूटते रहते हैं । पता नहीं इसे कौनसी जादूगरी आती है, नीम और आम दोनों को ये अपनी कोंख में एक साथ पालती है । और इसी से बने हैं हम इंसान सब । हमारे भीतर भी ज़िन्दगी भर कई इंसान पैदा और फ़ौत होते रहते हैं । पर जब वो आख़िरी घड़ी आती है, तब वो भीतर के सब इंसान एक होकर बन जाते हैं मिट्टी का एक ढ़हता हुआ ज़ज़ीरा । जिसे मौत का दरिया रफ़्ता रफ़्ता निगल जाता है । न जाने ये मौत किस मिट्टी की बनी है, जो हर जानदार मिट्टी के पुतले को पल भर में मिट्टी में बदल देती है । और उस आख़िरी मंज़िल क़ब्र में भी उसे आख़िर मिट्टी ही नसीब होती है । पता नहीं ये मिट्टी किस मिट्टी की बनी है ।

@rockshayar

“अपनी क़लम को न बचा सका मैं”

अपनी क़लम को न बचा सका मैं
बाज़ार के बदनीयत साये से
वक़्त के साथ साथ हम दोनों बदल गए
बदल तो गए
मगर ये बदलाव दिल को अखरता है बहुत ।

दिमाग का क्या है
उसे तो बहुत खुशी मिलती है
जब भी जज़्बातों से दूरी होती है ।

पर ये दिल तन्हाई में रोता है
गुज़रे दौर को याद करता है
अश्क़ नज़र न आ जाए किसी को
इसीलिए जब भी नहाता हूँ
तभी रोना मुनासिब लगता है
आख़िर चट्टानों की तरह मज़बूत वज़ूद का
इक़रार जो कर चुका हूँ ।

पता नहीं मेरी क़लम मुझे चलाती है
या मैं इसे
पर जो भी हो
हम दोनों को ही चलने का शऊर नहीं आता है
शर्तों में नहीं बंधने की
शर्त भी तो लगाई है खुद से ।

अपनी क़लम को न बचा सका मैं
खुद अपने ही दोगले किरदार से
वक़्त के साथ साथ बहुत कुछ बदल गया
बदल तो गया
मगर ये बदलाव दिल को अखरता है बहुत ।।

“हर बार ज़िन्दगी दोराहे पर लाकर खड़ा कर देती है”

हर बार ज़िन्दगी
दोराहे पर लाकर खड़ा कर देती है
दोनों रस्ते साफ सरल सीधे लगते हैं
मालूम करना बड़ा ही मुश्किल लगता है
कि कौनसा रस्ता सही है, और कौनसा नहीं है ।
एक बड़ा ही आसान और आरामदायक है
दूसरा सख़्त मुश्किल, मगर खुद नायक है
दिल और दिमाग के बीच में
महीनों तक
कई कई बार जंग छिड़ती है
कभी कोई जीतता है
कभी कोई
मगर हार तो उन सपनों की होती हैं
जो ज़िन्दगी भर
इन दोराहो के दरमियान
मुसाफ़िर की तरह भटकते रहते हैं
अपना पता पूछते रहते हैं ।।

“बस यही कामना है मेरी”

तुम तो शायद मुझे पहचानती भी नहीं होगी,
पर मैं तुम्हें आज भी हर पल याद करता हूं।

तुम्हें पता भी कैसे होगा मेरे बारे में ?
मैंने कभी इज़हार भी तो नहीं किया था
तुमसे अपनी मोहब्बत का।

तुम्हें तो ये भी नहीं पता होगा
कि मेरा नाम क्या है ?
मैं कौनसी ब्रांच में था ?

चलो तो फिर !
आज तुम्हें अपने बारे में बता ही देता हूं ।

याद है ! वो पाॅलिटेक्निक का दौर
जब मैंने तुम्हें पहली बार देखा था
फर्स्ट ईयर की कम्बाइंड क्लास में।

जैसे कल ही की बात लगती है,
मैं तुम्हें यूं घूरता ही जा रहा था।
दोस्तों से तफ़्तीश में पता चला कि,
गर्ल्स पाॅलिटेक्निक की
इलेक्ट्रॉनिक्स ब्रांच की
क्लासेज भी
हमारे साथ ही लगेगी,
दो साल तक
फर्स्ट ईयर और फाइनल ईयर में।

ये सुनकर मुझे जितनी खुशी मिली थी
आज तक वैसी दुबारा नहीं मिली कभी।

चुपके चुपके यूं देखना तुम्हें, मेरी आदत बन गई,
मासूम चेहरे की मुस्कान, रूह की राहत बन गई।

वक़्त के साथ साथ, चाहत भी बढ़ती चली गयी
तेरे मेरे इश्क़ की, ये कहानी भी गढ़ती चली गयी

आज तक यह मालूम नहीं चला,
कि मैं तुम्हें क्यों पसंद करता था ?

मोहब्बत यूं कभी एकतरफ़ा नहीं होती है,
ये वो नींद है, जो सोकर भी नहीं सोती है।

फिर न जाने क्या हुआ, इक रोज यूंही तुम्हें
दूर चली गई कहीं, उदास हो गए वो सब लम्हें।

मैंने दिल को जितना समझाया,
दिल ने मुझ को उतना तङपाया।

आज जब तुम्हारी डीपी देखी
सोशल मीडिया पर
तो जज़्बात खुद बखुद ही उतर आए
अल्फ़ाज़ की शक्ल लिए
एहसास के काग़ज़ पर
दिल-ए-नादान की दास्तान समेटे हुए।

अब तो पता चल गया न !
मैं कौन हूं ?

ख़ैर ! जो भी हो
मुझे जो कहना था
कह दिया मैंने आज सब कुछ
अब दिल पर कोई बोझ नहीं है मेरे।

तुम तो शायद मुझे पहचानती भी नहीं होगी,
पर मैं तुम्हें आज भी हर लम्हा याद करता हूं।

बस यही कामना है मेरी,
जहाँ भी रहो,
हमेशा खुश रहो तुम।।

“एक पार्क मेरा दोस्त बन गया”

20140810_103027.jpg

एक पार्क है काॅलोनी के उस छोर पर
जहाँ अक्सर शाम को जाया करता हूँ ।

पता नहीं क्यों जाता हूँ ?
ना मुझे टहलना होता है !
ना कोई खेल खेलना होता हैं !
मैं फिर भी उस पार्क में जाता हूँ
जहाँ बच्चों के लिए झूले
और बुजुर्गों के लिए बेंचे लगी हुई हैं ।

पता नहीं मैं कौन हूँ ? बच्चा या बुजुर्ग !

कभी झूले से बेंच को तकता रहता हूँ
तो कभी बेंच पर बैठे हुए
उन झूलों के दरमियान
खुद को झूलता हुआ पाता हूँ ।

वैसे तो बहुत सी बेंचे लगी हैं वहां पर
मगर मुझे वो लकङी वाली बेंच
सबसे अच्छी लगती है
जहाँ से ठीक सामने
बच्चे झूले झूलते हुए दिखाई देते हैं ।

तन्हाई में अक्सर इसी बेंच पर बैठकर
अपनी कई पुरानी नज़्मों को
ताज़ा करता रहता हूँ ।
ऊँची ऊँची आवाज़ में बोलकर उन्हें
मोबाइल में रिकॉर्ड करता रहता हूँ ।

सुना है !
आवाज़ अल्फ़ाज़ में जान डाल देती है ।

रिकार्डिंग के वक्त
आस पास की कई आवाज़ें भी
बिन बुलाए मेहमान की तरह
बैकग्राउंड में शामिल हो जाती हैं…
“जैसे गिलहरी की आवाज़
बहती हवा का शोर
और खेलते कूदते बच्चों की
गूँजती हुई किलकारियाँ”

इस वहम के चलते शायद
मैं उन्हें हटाता नहीं हूँ
कि यह गूँजती हुई “अनवांटेड आवाज़ें”
उस दर्द को छुपा सके
जो नज़्म के भीतर क़ैद है कहीं”

हालांकि ऑडियो सॉफ्टवेयर से
एक्स्ट्रा नॉइज़ भी रिमूव करता हूँ ।
मगर वो जो ख़ामोशियों का नॉइज़
अहसास के सुलगते हुए पन्नों पर
वक्त की अमिट स्याही से उतरा हुआ हैं,
कोई सॉफ्टवेयर
भला उसे कैसे रिमूव कर सकता है !

उसी पार्क के कोने में एक पेङ है ।
बिल्कुल सूखा
ना कोई पत्ता है जिस्म पर
ना किसी शाख़ का साया ।
पता नहीं ज़िंदा भी है या मर गया !
टहलने वाले लोग उसे ठूंठ कहते हैं ।

उसी के नीचे बैठकर मैंने
कई तन्हा शामें गुज़ारी हैं
ताकि उसे भी अच्छा लगे ।
अकेलापन कितना डरावना होता है !
अच्छी तरह मालूम है मुझे ।

इसी बगीचे में एक बुजुर्ग
रोज अपने पोते के साथ टहलने आते है ।
वो मासूम बच्चा अपनी तोतली ज़बान में
कई बङे बङे सवाल पूछता रहता है
अपने दादा जी से ।
उन दोनों को देखकर
मुझे अपने दादा जी याद आ जाते है
जिनकी गोद में ना खेल पाया कभी मैं
मेरी पैदाइश से पहले ही वो चल बसे थे ।

पार्क के ही एक कोने में
माली ने अपना घर बना रखा है ।
कहने को घर है बस
घास फूस और बेलों से लदी हुई एक झोपङी ।
माली और पार्क यक़ीनन
घंटों तक बातचीत करते होंगे रोजाना ।
दोनों एक दूसरे के परिवार का
ख़्याल जो रखते हैं ।

पता नहीं इस पार्क में ऐसा क्या है ?
दिन भर की थकन से चूर होकर
जब भी इसके आगोश में समाता हूँ
ये बङे प्यार से आराम देता है मुझे ।

हम दोनों एक दूसरे को
बखूबी समझते हैं !

शायद इसीलिए आज
एक पार्क मेरा दोस्त बन गया ।।