“आख़िर लगा ही दी न तुमने तसव्वुर पर बंदिश”

आख़िर लगा ही दी न तुमने
तसव्वुर पर बंदिश
कहा था मैंने इक रोज
के है बस इतनी गुज़ारिश
पर तुमने सुना नहीं शायद
और अब आलम यह है कि
ख़याल में भी ख़याल हो चुकी हो ।

जब सब खत्म हो चुका है
तो फिर ये बैचैनी क्यों
क्यों तुम्हारी आवाज़ मेरे ज़ेहन में गूँजती रहती है
क्यों हर शब ये आँखें
तुम्हारे इंतज़ार में खुली रहती है
मैं तो सो जाता हूँ, पर ये सोती नहीं है
गर हमारा मिलना लिखा ही नहीं है दोबारा
तो फिर दिल में ये आस क्यूँ है ज़िन्दा अब तक
कभी भूले से ही सही
मेरे तसव्वुर में फिर से थोड़ी जान फूँक दो
पल पल मर रहा है यह
और इसके साथ मैं भी
इतनी खुदगर्ज़ी भी अच्छी नहीं
आख़िर इतना हक़ तो बनता है
उस मोहब्बत का
जो की थी मैंने कभी तुमसे
मेरी डायरी का हर पन्ना गवाह है
कि ये क़लम कभी झूठ नहीं लिखती है ।।

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