“मैं ठहरा लफ़्फ़ाज़ी लौहार, वज़्नी हर्फ़ के हथौड़े चलाता हूँ”

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काग़ज़ के कोरे-कोरे मैदान पर, अक़्ल के घोड़े दौड़ाता हूँ
मैं ठहरा लफ़्फ़ाज़ी लौहार, वज़्नी हर्फ़ के हथौड़े चलाता हूँ

साँसों की धौंकनी अंदर की आग को भड़काती है
एहसास की रौशनी अनदेखा सा कुछ दिखाती है

आहों से निकलता धुआँ नज़र नहीं आता है
यादों का पिघलता लोहा पल में जम जाता है

ना जाने कौनसी शक़्ल इख़्तियार करेगा, इसे भी नहीं पता
यह किस औज़ार की नस्ल तैयार करेगा, इसे भी नहीं पता

तपिश और वर्ज़िश के चलते, ज़हन भी थक जाता है
ख़लिश और गर्दिश के चलते, धूल से ये ढक जाता है

मेहनतकश मन के लिये ख़ुराक़ हैं ख़याल
सेहतमंद सोच के लिये क़िताब हैं ख़याल

दर्द की भट्टी में आँच तेज़ करते वक़्त, ये हाथ जल जाते हैं
क़लम की धार को तेज़ करते वक़्त, नर्म जज़्बात छिल जाते हैं

तसव्वुर के तारीक़ तहखाने में, हक़ीक़त के शोले भड़काता हूँ
मैं ठहरा लफ़्फ़ाज़ी लौहार, वज़्नी हर्फ़ के हथौड़े चलाता हूँ।

— अल्फ़ाज़ में फ़क़त, वज़ूद मेरा नुमायाँ है —

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ख़ुद गर्ज़ होकर ही मैंने, खुद को पाया है
अल्फ़ाज़ में फ़क़त, वज़ूद मेरा नुमायाँ है

ख़लाओं से ख़्याल चुने, ख़राशों से ख़्वाब बुने
लहू में रूहानियत, जुनून मेरा सरमाया है

इत्तिबा उसकी करू, इंतिहा उससे डरु
कायनात के हर ज़र्रे में, वो जो समाया है  

दर्द की मुद्दत के बाद, सर्द सी शिद्दत के साथ
इन्सां ना कोई हाँ, रहबर मेरा ख़ुदाया है

जिस्म कागज़, लफ्ज़ मेरी रूह ‘इरफ़ान’
एहसास में फ़क़त, वज़ूद मेरा नुमायाँ है ।।

#RockShayar ‘इrफ़aन’

“उस्ताद “

 

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लफ़्ज़ों में बयां ना हो सके वो
मर्तबा कुछ इस कदर बुलन्द हैं
इल्म से ज़िन्दगी संवारता जो
किरदार खुद उसका रोशन हैं
तालीम की मशाल थामे हुए
जहालत का अँधेरा मिटाता हैं
किताबों की दुनिया के साथ साथ
शागिर्द को खुद से रूबरू कराता हैं
मायूसी में इक उम्मीद जगाकर
निरंतर बढ़ना सिखलाता हैं
सबसे बेहतरीन शख़्सियत वो
अदब से जिन्हे पुकारा जाता हैं
गुरु, शिक्षक, उस्ताद, टीचर
ये अल्फ़ाज़ सभी कम लगते हैं
सारी इन्सानियत का रहबर वो
तहज़ीब खुद जिसका सरमाया हैं

© RockShayar

“गीली हो गई हैं ये डायरी मेरी”

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बारिश में भींगकर आज
गीली हो गई हैं
ये डायरी मेरी
रखता हूँ जिसे हर घड़ी
जेब में यूँ सम्भालकर
ज्योंही दिल में कोई ख़्याल आता हैं
झट से उतार देता हूँ
इस डर से की कहीं
उड़ ना जाए वो ख्याल
ज़हन की तश्तरी से
भांप बनकर यूँही
भींगी भींगी सी ये डायरी
जाने क्यूँ अब हल्की हल्की लग रही हैं
शायद कुछ वज़नी अल्फ़ाज़
नमी के साथ बह गए हैं
मगर वो आखिरी पन्ना
जिस पर लिखा हैं नाम तुम्हारा
अब भी ख़ुश्क़ ही हैं
एहसास का इक रेशमी गिलाफ
उसकी हिफाज़त करता रहता हैं
बीच बीच के कुछ पन्नें
आधे सूखे, आधे गीले
जैसे कोई शैदाई
महबूब को याद कर
कभी हँसता हैं, कभी रोता हैं
एक अधूरी ग़ज़ल, भीगी हुई
कोने में, यूँ दुबककर बैंठी हैं
मानो कोई बुरा ख़्वाब देखा हो
डरी हुई, सहमी हुई, काँपती हुई
मेने कुछ गर्म साँसे उड़ेल दी, इस पर
जैसे सर्दियों में तुम
मुंह से निकलते धुंए को
मुझ पर उड़ेला करती थी
ना जाने, वो लम्हा कहाँ ग़ुम हो गया हैं
ख़्वाब में भी अब, नज़र नहीं आता
शायद किसी नज़्म के साथ
वो भी बह गया हैं
बारिश में भींगकर आज
गीली हो गई हैं
ये डायरी मेरी
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“लफ्ज़ो कि ज़ुबान”

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चंद टेढ़ी मेढ़ी लकीरो से
बनता है उसका वुज़ूद
कागज़ पर उतर कर
ज़िंदा करती गुजरा कल
कुछ भी ना बोले
पर सब कुछ कह देती है
वो है लफ्ज़ो कि ज़ुबान
जिसने छुआ इसे कभी
लज्ज़त में फिर डूबता गया
एहसास के गहरे समंदर में
तैरता रहता क़श्ती कि तरह
जो समझते है इस ज़ुबां को
उनके लिए ये इक जूनून
ज़ज्बातो को अपने फिर
पहनाते है अल्फ़ाज़ी लिबास
अलग अलग है रंग जिनके
ख़ुशबू भी है ज़ुदा ज़ुदा
कभी उदास, कभी बदहवास
जो रूठी तो दर्द बनी
लफ्ज़ो से रिसता हुआ
दर्द धीमे धीमे टपकता है
माशूक़ कि पलकों से जो लिपटी
हुस्न-ओ-नज़ाकत कि अदा कहलाई
कलम का उम्दा फ़न है ये
जिसे चाहे फ़राज़ दे
नूरानी क़ैफियत से नवाज़ दे
शब्दो के इस मेले में
बस ये कह रहा ‘इरफ़ान’
शायर के दिल से जो है जुड़ी
वो है लफ्ज़ो कि ज़ुबान …..